Monika garg

Add To collaction

लेखनी कहानी -13-May-2022#नान स्टाप चैलेंज# उसका बड़प्पन

मेरे चाहे न चाहे वह वैष्णवी रोज ही सारे मोहल्ले से कलेवा बटोर कर मेरे आंगन में आकर रोज सुबह पसर जाती।
न अनुमति की आवश्यकता, न हीं आग्रह !
बस जैसे उसका ही आंगन हो...
भांति भांति की पुड़िया खोल कर अपनी क्षुधा शांत करती ।
कभी कहती ..माई! थोड़ा अचार दे दे ..
कभी करती चाय की फरमाइश!
बहुत चाहा कि मना कर दूँ यहाँ आने को!
मेरे घर से भी मधुकरी लेकर कहीं और जा बैठे..
इतने तो पेड़ है कॉलोनी में !पर संस्कारो से बंधी चेहरे पर मुस्कान रख दे ही देती,जो कहती।

नारंगी केसरिया रंग उड़ी धोती, हष्ट पुष्ट शरीर, मर्दाना चेहरा... वैसी ही लंबाई ..ताम्बई रंग,भारी आवाज के साथ "अलख निरंजन" का अलाप लगाती जब अपना सोटा उठाए विविध पकवानों से भरी पोटली जमीन पर रखती, तो विभिन्न प्रकार के व्यंजनों की महक से पूरा घर सुवासित हो जाता।

बहुत बार मन का लेखक चाहता, कि उसकी कहानी पूछूँ, पर एक तो उसका भारी-भरकम व्यक्तित्व, और मैं घर में निपट अकेली !
जाने कौन-कौन सी कल्पना आ आकर राह रोक लेती। इतना तो छपता है आजकल अखबारों में।

दिन,हफ्ते, महीने उसका अनाधिकृत आगमन जारी था, कुछ-कुछ अब मेरे ह्रदय में भी!
फिर अचानक उसका आना बंद हो गया ..
मन में ख्याल आता ,पता नहीं क्या हुआ होगा उस अभागी को!
कहीं बीमार होकर, न न ...बड़ी सख्त जान है वैष्णवी!

फिर जैसे अंतर्ध्यान हुई थी, वैसे ही उस रोज प्रकट भी हो गई.. हाथों में देसी आम का टोकरा लिए..

माई ईईई -ओ -माई ईईई! देख ! क्या लेकर आई हूँ तेरे लिए!
मेरे चेहरे पर प्रश्नवाचक भाव देख बोली " गाँव गई थी, सब हिसाब देखना था.."

"कौन सा हिसाब वैष्णवी "तुम्हारा परिवार है क्या?

हाँ हाँ सभी तो है ,बेटा !बहू !पोते !खेत ,आम के बगीचे! अबकी बहुत आम आए हैं ,तो तुम्हारे लिए भी ले आई..
मुझे समझ ही न आया कि पहले आम का दाम पूछूँ या यह कि परिवार के होने पर भी वह यहाँ भिक्षुणी बनी क्यों फिर रही है ?..
वही मेरे मनोभावों को भाँपती हुई बोली "समझ रही हूँ, तुम क्या सोच रही हो..
फिर अपनी पुष्ट टांगों को सीधे करती हुई, आरामदायक अवस्था में आकर पीछे को टिकती हुई बोली .."यह मेरा प्रायश्चित है री !
हत्या करी थी मैंने !अपने परमेश्वर की !
अंदर की पीड़ा कहीं गहरे उसकी आँखों में और चेहरे पर उतर आई थी ..
मतलब"...?
एक गहरा निःश्वास छोड़ती बोली "मेरी शक्ल तो तुम देखती ही हो.. पिताजी जमींदार थे पहली संतान में ही थी, भगवान ने किन्नर की योनि में भेजा.. इसमें मेरा क्या दोष! पर प्यार पूरा दिया मेरे पालकों ने, हाँ ,डर के मारे दूसरी संतान नहीं करी ..कही फिर से..
और लड़की की तरह पालते रहे।
पर माँ-बाप तो माँ-बाप ही होते हैं ,बहुत आगे का नही सोच पाए या शायद सोचा..
और इनसे शादी करवा दी ,गरीब घर के लड़के ..दहेज में मिलती ज़मीदारी भला कौन ठुकरा सकता है?
पर प्रेम का क्या? वह तो भीतर से आता है..फिर मुझ जैसी से,जिसे विधाता खुद ही प्रेम न कर पाया,और अधूरा बना के भेज दिया।
जब तक माँ-बापू थे, सब ठीक था.. फिर तो रोज गाली-गलौज ..मार- पिटाई.. जिस जमींदारी के लालच में यह मुझे मिले थे ,उसी के लालच में सौतन भी आ गई.. और फिर बच्चे भी..
पर राम जी की कसम खाकर कहती हूँ माई ..उतनी ही ममता दी मैने उन्हें.. जैसे मेरे कोख जाये हो।
उनके हर बुखार में मैं भी तपी।
हर पीड़ा.. हर दुख.. जैसे मेरा अपना हो..
पर जैसे मेरी वसीयत ही मेरी दुश्मन बन गई थी.. सारा दिन कोल्हू के बैल सी चलती ..
फिर भी इन का गुस्सा शांत न होता।
एक दिन तो खूब मारा ..दोष बस यही कि उनकी पसंद की सब्जी न बना पाई ..बच्चों की पसंद बनाने में ही दिन निकल गया..फिर उस रोज अनाज को कोठरी में रखवाने का काम भी किया था।
जाने कौन घड़ी थी.. बबुनी..! जैसे काली माता ही साक्षात संवार थी माथे पर !
पास में पड़ा सिलबट्टा उठाया ,और दे मारा माथे पर.. फिर जो गिरे.. तो उठे ही न..
कोहराम हो गया घर में.. सुबह सबको झूठ ही बोलकर क्रिया कर्म कर दिया बेटे ने !
दुनियां को तो कुछ पता नहीं चला, पर मन पर सौ सौ मन का भार था माई !
पति परमेश्वर होता है न..?
खुद ही खुद को सजा दे दी मैंने ..
और सब त्याग कर वैष्णवी बन गई ..माँग कर खाती हूँ कि जमींदारी का गुरुर भी चला जाए ।
अबकी गाँव जाकर सब बेटों के नाम भी कर आई हूँ।
मोह का आखिरी धागा भी तोड़ आई हूँ अब मैं !
पर आम दिखे तो तुम्हारी याद आ गई.. तुम क्या कम मान देती हो मुझे...?
इसलिए ले आई ..
संतोषी मुस्कान थी उसके चेहरे पर... और मैं इतनी शर्मिंदा की दाम भी न पूछ पाई.. उसका बड़प्पन और मेरे छोटे मन का छोटापन हावी था अब मुझ पर!

   19
2 Comments

Seema Priyadarshini sahay

28-Mar-2023 10:05 PM

बेहतरीन

Reply

बहुत खूब

Reply